Friday, 11 April 2025

सत्संग - डॉ० उषा पाण्डेय 'शुभांगी'


सत्संग - डॉ० उषा पाण्डेय 'शुभांगी'

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सत्संग करें हम, शांति मिलेगी।
विचार हमारे शुद्ध होंगे, नई उर्जा मिलेगी।
संतो का संग होगा, सकारात्मकता बढ़ेगी।
आत्मा की शुद्धि होगी, 
सोच बदलेगी।
व्यक्तित्व का विकास होगा,
अज्ञानता का नाश होगा।
मन पवित्र होगा, ईश से जुड़ाव होगा।
जिंदगी को देखने का नजरिया बदलता है।
सत्संग करने से, अहंकार लालच सब मिटता है।   
तन में स्फूर्ति आती, निर्णय हम सही लेते।
परनिंदा नहीं करते, जीवन का आनंद लेते।
मन भक्तिमय होता, नहीं होता उदास।
मधुर वचन हम बोलते, होता हमारा सम्पूर्ण विकास।
अच्छी बातें हम सीखते, औरों को सिखलाते।
अपना दुख भूल हम, औरों की खुशियों में खुशियाँ मनाते।
नवचेतना का संचार होता, नीरसता रहती दूर।
मोह-माया से दूर रहते, खुशियाँ मिलती भरपूर।
तन मन शुद्ध होता, तनाव से मिलता राहत।
आत्मबल हमें मिलता, नहीं करते हम किसी को आहत।
मन में श्रद्धा बढ़े, ईश्वर की कृपा मिले। 
वातावरण शुद्ध 
 हो, तन मन रहे खिले खिले।
भावनात्मक पक्ष होता मजबूत,
जीवन में रहता उमंग।
सीख जाते हम, सही जीवन जीने का ढंग।
सत्संग से मन पावन होता, 
सत्संग का कोई जवाब नहीं।
दुख से हम घबराते नहीं, बुरे भाव मन में आते नहीं।
जीवन में आगे बढ़ना हो तो, सत्संग करें जरूर। 
आध्यात्मिक पक्ष मजबूत होगा, नहीं रहेंगे हम मजबूर।

डॉ० उषा पाण्डेय 'शुभांगी'
स्वरचित

सत्संग के जीवन में प्रभाव - डॉ बी आर नलवाया

 सत्संग के जीवन में प्रभाव - डॉ बी आर नलवाया

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मनुष्य अनुकरण प्रिय प्राणी है ।मनुष्य के अनुकरण करने की सहज आदत है। मनुष्य के बारे में मनोवैज्ञानिकों का कथन है, कि एक व्यक्ति के निर्माण में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा वातावरण का प्रभाव होता है, और 40 प्रतिशत अनुवांशिकता का प्रभाव रहता है। अतः मनुष्य को अच्छे सत्संग में रहना चाहिए । सत्संग का आशय मात्र किसी पुस्तक के पठन-पाठन से या किसी प्रवचन के श्रवण से नहीं है । सत्संग का अर्थ है सत् का संग करना ,अर्थात हमें मनुष्य मात्र को अच्छे लोगों की संगत में रहना चाहिए । हमें अहंकार, क्रोध और हिंसा जैसी बुराइयां जल्दी से जल्दी छोड़ देनी चाहिए । तभी हम अच्छे लोगों की संगत व अच्छे विचारों के सत्संग से हम अपने जीवन में सत्यता ,सात्विकता और पवित्रता की प्रेरणा मिलेगी और  जिससे हमारा जीवन -पथ प्रदर्शक होता रहेगा। यही सत्संग का प्रभाव होता है । इसलिए कहा जाता है, अच्छे सत्संग से अच्छी संगति बनेगी, स्नेह मिलेगा और मैत्री सदा अच्छे लोगों के साथ रहने से संभव हो सकेगी। केवल 1 घंटे के सत्संग से सारी बातें आपके हृदय को स्पर्श करें या चोट पहुंचाने, यह आप पर निर्भर करता है कि सत्संग किस तरह का आपने स्वीकार किया । परमात्मा महावीर का सत्संग  करके चंद्र -कौशिक भद्र कौशिक बन गया था । सत्संग पाकर लुटेरा वाल्मीकि संत या वाल्मीकि बन गया था।
      संत तुलसी दास जी ने तो क्षण भर की सत्संगति  को भी कालजयी बताया है। क्षण भर के सत्संग की महिमा बताते हुए संत तुलसी दास जी ने एक पद लिखा था –
एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी में पुनि आध। 
 तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध ।। 

डॉ बी आर नलवाया मंदसौर

सत्संग - डॉ. रुपाली दिलीप चौधरी


सत्संग - डॉ. रुपाली दिलीप चौधरी
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भारतीय आध्यात्मिक चिंतन में "सत्संग" एक ऐसा तत्व है जिसे आत्मोद्धार का सार कहा गया है। 'सत्' का अर्थ है सत्य, सद्गुण, सदाचार और ईश्वर; जबकि 'संग' का अर्थ है संगति या संपर्क। इस प्रकार सत्संग का आशय है - सत्य और सदाचार की संगति ।"सत्संगति किम् न करोति पुंसाम्?" – हितोपदेश ,सज्जनों की संगति मनुष्यों के लिए क्या नहीं कर सकती? मनुष्य का जीवन जिन विचारों से प्रभावित होता है, वही उसकी दिशा तय करते हैं। सत्संग जीवन को सकारात्मकता, विवेक और आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।"सत्यमेव जयते नानृतं" - मुण्डकोपनिषद् सत्य की विजय की घोषणा करने वाला यह वाक्य सत्संग की आत्मा है। वेदों में ऋषियों की संगति को ही सत्संग कहा गया है, जहाँ सत्य का अन्वेषण होता है। 'सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वम् ।निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः।"– शंकराचार्य, विवेकचूडामणि • इस श्लोक के अनुसार सत्संग से वैराग्य उत्पन्न होता है, वैराग्य से मोह का नाश होता है, और अंततः आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।"सज्जन संगति रेंगन ते विषधर भी अमृत होई।"अर्थात् जैसे साँप भी चंदन वृक्ष के स्पर्श से सुगंधित हो जाता है, वैसे ही दुष्ट भी सत्संग से सुधर सकता है।"सत्संगति से मन सुधरे, विवेक बढ़े दिन रात।कबिरा तेरे संग से, मिटे भवसागर त्रास ॥" कबीरदास जी ने सत्संग को मोक्ष का द्वार बताया है। वे कहते हैं कि सत्संग से ही आत्मा परमात्मा से जुड़ती है। 'सत्संगात लभते बुद्धि, बुद्धिरज्ञाननाशिनी । 'ज्ञानं लभ्यते ततो, मोक्षः सुलभं भवेत्॥"सत्संग से बुद्धि शुद्ध होती है, और फिर ज्ञान प्राप्त होकर मोक्ष की ओर गमन होता है।सत्संग मानसिक संतुलन को सुदृढ़ करता है।चिंतन की दिशा को सकारात्मक बनाता है।ध्यान और आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देता है।व्यक्तियों में नैतिक मूल्यों का विकास होता है।समुदाय में समरसता और भाईचारा बढ़ता है। युवा पीढ़ी को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दिशा मिलती है। संगात संजायते कामः संगात् संजायते ज्ञानम्। संगात् सर्वं प्रवर्त्तते, सत्संगो हि परं बलम् ॥" आज की व्यस्त और तनावपूर्ण जीवनशैली में सत्संग एक मानसिक औषधि के रूप में कार्य करता है। आभासी दुनिया से जुड़े समाज को वास्तविक, मानवीय और आत्मिक संवाद की आवश्यकता है, जो केवल सत्संग में संभव है। सत्संग मंचों के माध्यम से युवा आत्मनिष्ठ बनते हैं।नशा, अपराध, मानसिक विक्षोभ आदि से मुक्ति के लिए यह साधन कारगर है।आत्मज्ञान, सेवा भावना और राष्ट्रभक्ति को जाग्रत करता है।"बिन हरिभजन न भव तरै, सत्संग बिनु होय।सत्संग सुगम करि हरि कृपा, साधन धाम सो होय - रामचरितमानस सत्संग वह भूमि है जहाँ आत्मा पुष्प की भांति खिलती है और ईश्वर की ओर अग्रसर होती है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक यात्रा है, जो जीवन को नवचेतना से भर देती है।एक ऐसी आध्यात्मिक यात्रा जिसमें ना किसी के  प्रति क्रोध, द्वेष है अपितु शांति, संतोष का मूल स्त्रोत होता हैं।

हिंदू विवाह संस्कार - प्रदीप कुमार नायक

हिंदू विवाह संस्कार - प्रदीप कुमार नायक

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             प्रदीप कुमार नायक 

          स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार 
                         वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार माने जाते हैं। विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है जिसके बिना मानव जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। हिंदू धर्म में विवाह संस्कार को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है।
               शाब्दिक अर्थ
                          विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
       सात फेरे और सात वचन
                      विवाह एक ऐसा मौक़ा होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। भारतीय विवाह में विवाह की परंपराओं में सात फेरों का भी एक चलन है। जो सबसे मुख्य रस्म होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं।
    सात फेरों के सात वचन 
                 विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।
            प्रथम वचन
                     तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!
                    (यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
                             किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
         द्वितीय वचन
                            पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
                  (कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
                         यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है--गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
           तृतीय वचन
                            जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
                      (तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
        चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
                    (कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)
                         इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
          पंचम वचन :
                        स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
                  (इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
                        यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
           षष्ठम वचनः
                             न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!
                       (कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
                   वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
            सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
                     (अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
                         विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।

मन्दिर - डॉ० अशोक


मन्दिर - डॉ० अशोक
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शान्त धूप में भीगता मन्दिर,
जैसे कोई स्वप्निल चित्र।
घंटियों की मधुर स्वरलहरी,
मन को कर देता पवित्र।

अगरबत्ती की मीठी खुशबू,
मन मस्तिष्क को छू जाए। 
दीपक की लौ को जलना,
ईश्वर का है प्रेम जो सदा जगाए।

पाषण में भी प्राण है बसते,
हर मूर्ति कुछ कह जाती है।
श्रद्धा की वो मौन  प्रार्थना,
मन को अमृत कर जाती है।

नीले गगन के तले में मन्दिर,
शीतलता की है एक सुखद उपहार।
थके हुए राही मासूम को,
यही देती है ज़िन्दगी और खूब प्यार।

सारा सच की बेजोड़ है हिम्मत,
खुशियां पाने को रहते हैं सब तैयार।
इसकी वजह से ही दुनिया में,
मन्दिर मस्जिद में नहीं है तकरार।

सारा सच है एक वजह बस,
नवीन प्रयास है ख़ूब तैयार।
नवीन प्रयास और प्रयोग का संगम,
अब नहीं करना है कोई तकरार।

मन्दिर है एक सुखमय जीवन में,
सबसे खूबसूरत एक उम्दा आगाज़।
हरेक पड़ाव पर इस कारण से,
जिंदगी में खोई हुई खुशियां है अब मिलता,
दुनिया भर को दे रही है आवाज।

डॉ० अशोक, पटना,बिहार।

मंदिर - अनन्तराम चौबे अनन्



मंदिर - अनन्तराम चौबे अनन् 

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काशी मथुरा और अयोध्या उज्जैन महाकाल का मंदिर है । श्रीराम कृष्ण और शिव विराजे मंदिरों में सबसे प्रसिद्ध मंदिर है । कैलाश विराजे शिव शंकर महादेव की लीला न्यारी है । शिव पार्वती संग लीला देखो शंकर भोले बाबा भंडारी है । भगवान के मंदिर में सभी श्रद्धा विश्वास से जाते हैं छोटा बड़ा जो भी मंदिर हो भगवान वहां पर रहते हैं । प्रसाद के लड्डू में मिलावट कोई अधर्मी ही करता है । जाति धर्म बदनाम करने को साजिश ऐसी कोई करता है । धर्म में श्रद्धा आस्था जो रखता है मंदिर से भी वो जुड़ा रहता है । गृहस्थ जीवन को जीकर भी जीवन अपना सफल बनाता है । मंदिर में ईश्वर की पूजा करना समय मिले ध्यान लगाना । मनुष्य का तन मिला है तो पूजा भक्ति भी करते रहना। सुखमय जीवन जीना है तो परोपकार भी करना है । सारा सच है जैसी सामर्थ हो परोपकार भी, वैसा करना है । मंदिर में पूजा पुण्य का काम है पुण्य का फल मीठा मिलता है । आज नहीं तो कल मिलता है जीवन भी सुख मय रहता है । धर्म पूजा में श्रद्धा जो रखता है फल भी उसको मिलता है । परोपकार करने वाला ही सबकी दुआएं पाता रहता है । माता पिता की सेवा करना कभी दुखी न उनको रखना । माता पिता की सच्ची सेवा ही ईश्वर की जैसे पूजा करना है । सच्ची राह किसी को दिखाना सारा सच पुण्य का काम होता है। छोटा छोटा श्रम दान करो तो वो भी परोपकार ही होता है । प्यासे को पानी पिला दो भूखे को दो रोटी खिला दो । पक्षियों को दाना खिला दो मंदिर में पूजा जैसा होता है । महिलाएं अक्सर ही मंदिर में भजन कीर्तन करती रहती है । घर परिवार में खुशियां रहें मंदिर में यही कामना करती है पूजा, भक्ति ,धर्म कर्म भी श्रद्धा से जीवन में करना है । सारा सच है मोक्ष मिलेगा जीवन जो सार्थक करना है । अनन्तराम चौबे अनन्त जबलपुर म प्र

Tuesday, 8 April 2025

भूख - प्रा.रोहिणी डावरे

 


भूख - प्रा.रोहिणी डावरे
अकोले,महाराष्ट्र


 जब होती है पेट में भूख
तन को कैसे मिलेगा सुख
भूख मनुज को रूलाती है
भूख संवेदना जगाती है।१।

 तन की भूख मिट जाती है
मन की भूख मिटाए कौन
अपनीही रोटी सेंकनेवाले को
दो वक्त की रोटी होती गौण।२।

 भोजन बिना भजन नहीं
संत कह गए बात खरी
सारा सच मन की तृप्ति बिना
कैसे मिलेंगे तुम्हें हरी?।३।

 मेहनत की रोटी कमानेवाला
निंद चैन की सोता है
अरमान ऊँचे रखनेवाला
अमन-चैन को खोता है।४।

   नसीब नां होता जिन्हें मकान
शरीर ढँकने को नां मिले परिधान
धरती गद्दी,चादर आसमान
मानो रूठ गए भगवान।५।

 बडी पार्टियाँ और दिखावा भारी
ठूँस ठूँसकर भोजन जारी
बरबाद कर देते कितना अनाज
पहने है सिर पर झूठा ताज।६।

 माँ भारती का मंत्र ले लो जान
अन्न पूर्णब्रह्म देवता समान
मातृभूमि का सदा रहे स्मरण
पाश्चात्यों का नां कर अंधानुकरण।७।

  सच है मेरा भारत महान
जरूरतमंद को दे दे दान
सारा सच करें कदर सबकी
दुवाएँ मिलती रहेंगी रब की।८।

  मन्नत माँगूँ एक ही रब को
थोडा ही सही मगर दे दे सबको
एक ईश्वर की सब है सन्तान
एक-दूजे का करें सम्मान।९।
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     🙏🏻सकृतज्ञ धन्यवाद🙏🏻

त्यौहार - अनन्तराम चौबे अनन्त

 


त्यौहार  - अनन्तराम चौबे अनन्त 
https://sarasach.com/?p=427

देश में त्यौहार मनाना 
हमारी संस्कृति सभ्यता है ।
हमारे देश की परम्परा है
हम सबकी एकता है ।

त्यौहार घर परिवार को 
एक सूत्र में बांधकर रखते हैं।
हमारी एकता को दर्शाते
आपस में जोड़ कर रखते हैं ।

होली, दीपावली, दशहरा 
रक्षा बंधन खास त्यौहार हैं ।
रामनवमीं जन्माष्टमी और
गणेश चतुर्थी भी त्योहार हैं ।

भगवान भाग्य विधाता है
सभी के जीवन के दाता हैं ।
जीवन है अनमोल सभी का
सारा सच भगवान ही दाता है ।

भगवान के घर देर है 
सारा सच अंधेर नही है ।
पाप पुण्य का लेखा जोखा।
समय के साथ सही है  ।

जीवन में सुख दुख का
आना जाना लगा रहता है ।
इन्सान अपने हिसाब से ही
सारा सच जीवन जीता है ।

कोई श्रद्धा से पूजा पाठ
भजन कीर्तन करता है ।
भगवान से प्रेम करता है
सीधा सम्पर्क रखता है ।

अच्छे बुरे को समझता है
धरम करम भी करता है ।
पाप पुण्य भी समझता है ।
भक्ति भाव मन में रखता है ।

रामायण गीता पढ़ता है
कथा भागवत कराता है ।
समय समय पर आने बाले
धार्मिक त्यौहार मनाता है ।

गणेश जी दुर्गी जी की
झाकियां भी सजाता है ।
अपने पुरखो को मानता है
पितृ पक्ष में श्राद्ध करता है ।

किसी न किसी रूप में ही 
भगवान का रूप झलकता है ।
भगवान भी हर इन्सान के साथ 
सारा सच मन में रहता है ।

माता पिता भगवान का रूप है
कष्ट कभी कोई उनको न देना ।
जैसा करोगे फल भी पाओगे
सारा सच है समझ ये लेना ।

श्रद्धा भाव भगवान में रखना
आडम्बर  न दिखावा करना ।
अमीर गरीब में भेदभाव करना
आस्था और विश्वास रखना ।

   अनन्तराम चौबे अनन्त 
   जबलपुर म प्र

प्यार - डॉ. रुपाली दिलीप चौधरी

 


प्यार -  डॉ. रुपाली दिलीप चौधरी 
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प्रेम का मतलब यह नहीं है कि भई, मैं तो अपनी लड़की से प्यार करता हैं, अपने लड़के से प्यार करता मैं भाई से प्यार करता है, ये प्यार नहीं- इसके लिये एक शब्द है - 'निर्वाज्य' निर्लेप माने अलिप्त।  माँ  का अगर प्रेम निर्लेप हो जाए तो बहुत सी बातें छूट जायेंगी, पर ऐसा नहीं है। एक पेड़ को देखिये उसके से धारा, उसका रस सारे पेड़ में चढ़ता है, हर जगह उसके मूल में जाता है, पत्तों में जाता है, उसकी शाखाओं की लेकिन रुकता नहीं, वह किसी जगह रुकता नहीं। ग़र वो रुक जाये तो समझ लीजिए जैसे उसे एक जानकार आ गया या फूल बड़ा पसन्द आ गया तो पेड़ ही मर जाएगा, बाकी फल-फूल सभी मर जायेंगे। इसीलिये जिनको देना है उसको वो देना चाहिये, जिसको जो रस देना है वो अपने घर में, गृहस्थी में, समाज में, अपने देश में और सारे विश्व में जिसको जो देना है वो दीजिए लेकिन उसमें लिपट न जाइये। उसको लिपटना जो है वो एक तरह से कहना चाहिए जिसे अंग्रेजी में obsession कहते है-चिपकना- अब वो कोई सी भी चीज हो उससे प्रेम की शनि क्षीण हो जाती है, बढ़ेगी नहीं। कहते है 'उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' सारी वसुधा ही, सारी धरा ही उसकी कुटुम्ब है-ये  प्यार  की महिमा है-इस  प्यार की महिमा को अगर आपने जान लिया तो आपको आश्चर्य होगा कि आत्मा के दर्शन से ही ये घटित होता है । 
प्रेम पूर्ण उपहार है, दुसरों की भावनाओं को महसूस करने का पूर्ण उपहार, न इसमें कोई बातचीत है न बहस  आप तो बस प्रेम को महसूस करते है। प्यार का अनुभव अन्दर होता है, यह तो अन्तः स्थित है.  हम इसे पा सकते हैं........यह तो बस मौजूद है, इस प्यार को महसूस किया जा सकता है , दूसरे लोग आपसे प्रेम करते है या नहीं इसको कोई फर्क नहीं पड़ता, यह एहसास तो आपके अन्दर मौजूद है, आपके अन्दर यह गहनता है और आप इसका आनन्द लेते है। प्रेम का स्रोत शाश्वत है और इसका वर्णन शब्दों में करना आसान नहीं, यह सभी मानवीय अभिव्यक्तियों से परे है। किसी व्यक्ति में यदि यह प्रेम है तो यह फैलेगा ही।   व्यक्ति को यह सीखना है कि प्रेम का सागर हमारे अन्दर है, इस सागर में हमें स्वयं को डुबोना मात्र है। इस प्रेम सागर में जाये हम खो गए तो हर चीज हमारी अपनी होगी. बिना किसी वाद-विवाद के, बिना किसी प्रश्न के हम सारी व्यवस्था कर सकेंगे-यही सहज होना है। प्यार की व्याख्या यादी की जाये तो अपने शाश्वत प्रेम की अभिव्यक्ती का संतोष प्यार है । प्रेम आपको सिखाता है कि वास्तविकता की पूरी तस्वीर को किस प्रकार समझना है क्योंकि ये तो ऐसा काश है जो सारे अंधकार को ज्योतिर्मय करता है- आपके अन्दर और बाहर दोनों प्रकार के अन्धकार को। आपमें जब यह प्रेम आ जाता है तो आप अपने अन्दर अत्यन्त शान्त हो जाते हैं और आपकी शांति अभिव्यक्त होती है।..प्रेम अत्यन्त महत्वपूर्ण अत्यन्त मूल्यवान गुण है। परन्तु यह प्रेम पूर्णतः स्वच्छ प्रेम होना चाहिये। इसमें  कामुकता और लोभ को कोई स्थान नहीं है.... प्रेम तो बस प्रेम के लिये होता है। प्रेम के लिए आपको कृत्रिमता sophistication) की आवश्यकता नहीं है। आपमें यदि सच्चा प्रेम है तो आप अत्यन्त भद्र एवं मधुर बन जाते है। प्यार व्यक्ति को पागल नहीं बनाता..... प्यार  इतना पावन है कि यह अत्यन्त आपको समाधान सुझाता है। ये बात पूरी तरह से सत्य है क्योंकि यह अपनी अभिव्यक्ति करना चाहता है।  अत्यन्त सुन्दर ढंग से कार्य करता है।  प्यार अत्यन्त विवेकशील भी हैं,  किसी को हानि नहीं पहुँचाता, किसी को कष्ट नही देता..... आपको चाहिए कि परस्पर प्रेम करें, एक दूसरे का सम्मान  करे केवल तभी सबको  यह महसूस होगा कि प्रेम की इस शक्ति की अभिव्यक्ति हुई है।

महाराष्ट्र 

आद्यशक्ति माँ - डॉ. विमुखभाई यु. पटेल

 


आद्यशक्ति माँ - डॉ. विमुखभाई यु. पटेल
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माँ की पूजा जो करे,बनता उसका काम।
जिसके सिर पर माँ नहीं,हो जाता गुमनाम।

आद्यशक्ति माँ वो सदा,करती है उपकार।
शीतल कर संसार को,लाती मधुर बहार।

माँ का स्नेह लगे हमें,निर्मल धवल कपास।
माँ का हृदय रहे सदा,स्निग्ध स्नेह के पास।।

माँ की चुनरी देखकर,खिलने लगा पलाश।
आँचल ममता से भरा,हर्षित है आकाश।।

माँ का दिल वैसा लगे,जैसा सेमल फूल।
दूर करे माँ का चरण,जीवन से सब शूल।।

माँ का आशीष जग में,लगे कौस्तुभ समान।
अनुपम अमोल रत्न ये,बढ़ाए सबकी शान।।

  डॉ. विमुखभाई यु. पटेल
गुजरात 

मीठा बोलो - यश, कीर्ति व सम्मान के पात्र बनो - डॉ बी आर नलवाया


मीठा बोलो - यश, कीर्ति व सम्मान के पात्र बनो - डॉ बी आर नलवाया
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मनुष्य जीवन में ही मीठी  वाणी का या मीठे बोलने के वचन का महत्व सर्वविदित है। हम मीठा बोलकर और शुभ वचनों से ही किसी भी मनुष्य को प्रभावित कर सकते हैं ।जो व्यक्ति शुभ व मीठा बोलते हैं, वे अनावश्यक विवादों से बचे रहते हैं। मनुष्य या व्यक्ति से ही आशा कि जाती है ,कि वह मीठा बोलकर अपनी वाणी को संयमित करे, क्योंकि अन्य प्राणी में बोलने का भगवान ने अवसर नहीं दिया। जो भी व्यक्ति मीठा व शुभ बोलते है, वह शत्रु को भी मित्र बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। जो व्यक्ति कठोर बोलते है ,मीठा बोलने की आदत ही नहीं पढ़ी या  उनकी अशुभ वचन बोलने की आदत है, वे अपने मित्रों' को भी शुत्र बना लेते हैं। जिस प्रकार कौआ अपनी अशुभ व कठोर वाणी के कारण अप्रिय लगता है, लेकिन कोयल रंग रूप में कौए के समान होने पर भी वह कौए से श्रेष्ठ मानी जाती है ,क्योंकि वह मीठा बोलती है। हमें जीवन में कौआ बनना है, या मीठा बोलना है, यह निर्णय तो व्यक्ति स्वयं ही कर सकता । महर्षि तुलसीदासजी ने भी मीठा बोलने की महता बताई, हम उसे समझने का प्रयास करें। मीठी वाणी सदैव शहद के समान लगती है और कड़‌वी वाणी के वचन जहर के समान, इसलिए जीवन में सदैव शुभ बोले, मीठा बोले । मीठे वचन बोलते है, यह सदैव सम्मान और यश, कीर्ति, प्रशंसा के भागीदार बनते हैं।

डॉ बी आर नलवाया मंदसौर

ईद - डॉ० अशोक

 

ईद - डॉ० अशोक
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 ख़ुशी का दिन कहूं या त्योहार, 
इसकी सोहबत में,
खुशियां मिलती है ख़ूब अपार।

प्रेम भाइचारे और सामूहिक ख़ुशी का प्रतीक है,
ज्ञान दर्पण में,
सबसे खूबसूरत त्योहारों में,
यही जिंदगी का,
एक हकीकत है,
कह सकते हैं हम-सब के संदीप हैं।

मदद करने की परम्परा का,
सबसे खूबसूरत उपहार है।
ज्ञान दर्पण में उम्मीद बनाएं रखने वाले लोगों को,
यही जिंदगी है,
सबसे बड़ा आभार है।

प्रेम भाइचारे और सुकून देने वाली ताकत बनकर,
इसकी अहमियत को लेकर,
बड़ी नजदिकियां लाती है।
सहर्ष स्वीकार कर एक सुखद अहसास दिलाने में,
सबको करीब लाने की ताकत देते हुए,
हमेशा आगे बढ़ने में,
इन्सानियत की कोशिश कर,
हर्षित मन को तसल्ली देती है।

सारा सच है तो दुनिया में,
ईद मुबारक एक सुखद अहसास दिलाने वाली ताकत है।
सहर्ष स्वीकार किया जा सकता है,
यही इस त्योहार का,
सबसे बड़ा प्यार है।

 ईद मुबारक को साकार करने में,
गरीब -अमीर धरती की जरूरत है।
इसकी वजह से ही,
इसकी बढ़ रही अहमियत है।

सारा सच एक साहित्यिक विधा की उन्नत खोज है,
इसकी वजह से ही,
दुनिया एक सुखद अनुभव का संकल्प है,
हम कह सकते हैं,
यही अफरोज है।

डॉ ०अशोक, पटना, बिहार

प्यास - संजय वर्मा "दृष्टि


प्यास - संजय वर्मा "दृष्टि 
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जल कहता है 
इंसान व्यर्थ क्यों ढोलता है मुझे 
प्यास लगने पर तभी तो 
खोजने लगता है मुझे।

बादलों से छनकर मै 
जब बरस जाता 
सहेजना ना जानता 
इंसान इसलिए तरस जाता।

ये माहौल देख के 
नदियाँ रुदन करने लगी  
उसका पानी आँसुओं के रूप में 
इंसानों की आंखों में भरने लगती।

कैसे कहे मुझे व्यर्थ न बहाओ 
जल ही जीवन है 
ये बातें इंसानो को कहाँ से
समझाओ।

अब इंसानो करना 
इतनी मेहरबानी 
जल सेवा कर
प्यास बुझाकर
बन जाना तुम दानी।

संजय वर्मा "दृष्टि