सारा सच प्रतियोगिता के लिए रचना*
**विषय: धर्म**
**इस बदले हुए दौर में भी*- -
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(छंदमुक्त काव्य रचना)
सभी धर्मों का निर्माण कब और कैसे हुआ सारे जहां में,
और एक इन्सान होकर भी हम सभी बंट गए अलग-अलग धर्मों में।
सदियों पहले हुआ ये खेल निराला कैसे यहां,
आज उसी धर्मों की उलझनों में परेशां है ये सारा जहां।
कोई हिन्दू,कोई मुस्लिम,कोई क्रिश्चन,कोई शीख ईसाई,
एक ही लहू का रंग होकर भी मानो ये दुनिया हुई पराई।
बीत गए सालों साल फिर न बदला कुछ यहां पर,
इस बदले हुए दौर में भी जारी है वही नीतियों का सफ़र।
मगर कभी किसी ने आज तक सोचा नहीं आदिमानवों की जाति धर्म क्या है,
अनपढ़ दौर से लेकर,आज क्रांति का युग भी उसी को दोहरा रहा है।
ज्ञान की रोशनी का उजाला भी आज है यहां पर नाकाम,
सही ज्ञान के मतलब से ही,आज भी कितनी दूर है ये सारी अवाम।
खेल ये धर्मों का ना जाने कब खत्म होगा इस सारे जहां से,
कब शांति और अमन के फूल खिलेंगे इस संसार में।
कहीं भी देखो इस जहां में,हर तरफ़ उठा है नफरतों का धुवां धुवां,
कैसी है ये धर्म की नीतियां,आज भी उसी में डुबा है ये इन्सानों का कारवां।
अब तो सुधर जाओ,संभल जाओ सबकुछ खत्म होने से पहले,
"जियो और जीने दो"सभी को और कम न हो ये इन्सानों के काफिले।
सभी इन्सानों से ही चमन जैसा खिला है ये सारा संसार यहां पर,
दिन-ब-दिन ऐसे ही मिट जायेंगे इन्सान तो,किस काम का तुम्हारा ये अविष्कार।
सभी इन्सानों की कोई जाति ना कोई धर्म है इस संसार में,
प्रेम,भाईचारा,समता और एकता इसी में सारे संसार की भलाई है।
इस धर्म और जातियों का निर्माणकर्ता कोई विधाता कैसे होगा,
सभी धर्म और जातियों का खेल तो यहां इन्सानों ने ही रचाया है।
सभी धर्मों का निर्माण कब और कैसे हुआ सारे जहां में,
और एक इन्सान होकर भी हम सभी बंट गए अलग-अलग धर्मों में।
आज हमने आसमां भी छू लिया विज्ञान की सहयोग से,
मगर वही नीतियों को लेकर,आज भी ये इन्सान डुबा हुआ है धर्मों के अहंकार में - - - धर्मों के अहंकार में।
प्रा.गायकवाड विलास
मिलिंद महाविद्यालय लातूर..
महाराष्ट्र
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