अंतर्राष्ट्रीय साप्ताहिक प्रतियोगिता हेतु करवाचौथ शीर्षक से संस्मरण प्रेषित है
संस्मरण : मेरी करवाचौथ
बात छत्तीस साल पुरानी है. 1987 में मेरी शादी हुई. मैं उस वक़्त अपने शहर शाहजहांपुर में ही भारतीय सेना के लिए सभी प्रकार के वस्त्रों का निर्माण करने वाली भारत सरकार, रक्षा मंत्रालय की आयुध वस्त्र निर्माणी में क्लर्क था.
निर्माणी के विशाल रामलीला मैदान में सन 1964 से हर साल खेली जाने वाली 15 दिवसीय रामलीला मंचन और नुमाइश का समापन अखिल भारतीय कविसम्मेलन एवं मुशायरे के साथ आज भी होता आ रहा है. शहर के आसपास के लोग साल भर इस आयोजन का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं.
नौकरी करते हुए 6 साल हो गए थे. शहर में एक कवि के रूप में एक पहचान भी बन गयी थी. सो हर साल होने वाले निर्माणी के कविसम्मलेन एवं मुशायरे की आयोजन समिति में मुझे भी जोड़ लिया गया. समिति में मुझसे वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश अडिग, महेश सक्सेना, सुदर्शन वर्मा सलिलेश, अख़्तर शाहजहांपुरी भी थे, सो आयु के आधार पर मैं सबसे छोटा था, लेकिन जोश भरपूर था.
बात हो रही थी 1987 की. जून में मेरी शादी हुई और पहला करवाचौथ पड़ा 17 अक्टूबर, दिन शनिवार को. संयोगवश कविसम्मलेन एवं मुशायरे की तारीख भी उसी दिन. मैं कविसम्मलेन की व्यवस्था देखने के लिए सुबह से ही रामलीला मैदान में आ डटा. दोपहर से ही कवियों और शायरों का आगमन शुरू हो गया. उनके ठहरने और भोजन आदि की व्यवस्था में लगा रहा. मेरे वरिष्ठजन अतिथि कवियों के साथ बातचीत में मशगूल रहे. मुझे मंच की सजावट और श्रोताओं के बैठने की व्यवस्था भी देखनी थी. बहुत ही धैर्य के साथ सब कार्य करता रहा. तब मोबाइल सुविधा की कल्पना तक नहीं थी. साईकिल से ही दौड़-दौड़ कर कवियों के लिए फूल माला, बैज, शाल, माँ सरस्वती का चित्र, दीप प्रज्जवलन के लिए दीपक, घी, बाती एक एक चीज का इंतज़ाम करता रहा. इस चक्कर में घर नज़दीक होते हुए भी घर नहीं जा सका. दोपहर का खाना भी रह गया.
पत्नी ने पहला व्रत रखा था. तब मेरी माताजी उन्नाव में जिला परियोजना अधिकारी थीं तथा संयोग से घर पर ही थीं. उन्होंने सुबह ही हिदायत दे दी थी कि आज बहू का करवाचौथ का पहला व्रत है. दिन भर जो चाहो करो, शाम को चन्द्रमा दर्शन के समय घर पर ही रहना है. 'जो आज्ञा' कहकर मैं सुबह से निकल लिया था.
शाम को 5 बजे घर पहुँचा, वह भी मोमबत्ती और माचिस लेने, माता जी गुस्से से भरी बैठी थीं, - अब आ रहे हो, दोपहर का खाना भी नहीं खाया, क्या तुम्हीं अकेले हो कमेटी में, आदि आदि. मैंने कहा कि बाकी लोग मुझसे बड़े हैं, मुझे तो लगना ही पड़ेगा. अभी जाकर 8 बजे कवियों और शायरों को भोजन कराना है ताकि 9 बजे तक सब खा-पीकर तैयार हो सकें.
माताजी ने फिर सवाल किया, ' बहू के व्रत का क्या होगा, पहला व्रत है. 8 बजे चन्द्रमा दर्शन के बाद ही जाओगे कहीं.' मेरी खोपड़ी घूम गयी. 8 बजे दोनों काम एक साथ कैसे करूँगा. मैंने कठोर भाव से कहा- माँ, पहले नौकरी देखनी है. इसलिए मैं चंद्र दर्शन के लिए मौजूद नहीं रह पाऊँगा. इस पर माताजी बिफर गईं. बोलीं - सोच लो, अगर आज व्रत भंग हुआ तो बहू आजीवन व्रत नहीं रखेगी.
जिसे पत्नी से ज्यादा कविता प्यारी है, उसके लिए व्रत रखने की कोई जरूरत नहीं. मैंने कहा - मैं विवश हूँ, नौकरी पहले. और इतना कहकर रामलीला मैदान को निकल गया.
शाम के सात बजे, पहले अडिग जी, फिर महेश जी, सुदर्शन और एक एक कर निकल लिए, क्योंकि सबको अपना करवाचौथ मनाना था. मैं विवश अपने आयोजन में लगा रहा. 9 बजे अडिग जी, महेश जी, सुदर्शन जी लकालक सूटबूट में आ गए और अतिथि कवियों के साथ मंच की तरफ बढ़े. मुझे आदेश दिया कि हम लोगों के पहुँचने से पहले मंच पर पहुँच जाओ. जी - कहकर मैं मंच की ओर लपका. कवियों को भोजन कराने में मैं अपने भोजन से फिर वंचित रह गया. सुबह से पहने कपड़े बदलने तक की नौबत नहीं आई. कवियों और शायरों के मंच पर पहुँचते ही श्रोताओं से भरे पांडाल ने तालियां बजाकर उनका स्वागत किया. मुझे लगा मेरी मेहनत सफल रही. अडिग जी, महेश जी, सुदर्शन जी और अख्तर साहब मैंनेजमेंट और अतिथि कवियों के बीच सेतु की भाँति मंच की शोभा बढ़ा रहे थे. और मैं मंच पर चाय पहुँचाने के लिए कैंटीन की ओर चल दिया.
अचानक आसमान की तरफ निगाह उठी तो मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि चौथ का ये चाँद मेरी दयनीय स्थिति पर हँस रहा है या तरस खा रहा है.
पूरी रात श्रोताओं ने कविसम्मलेन और मुशायरे का आनंद लिया. अतिथि कवियों और शायरों को दिए जाने वाले मानदेय की रकम भी मेरे पास ही रक्खी गयी थी सो अधिकारियों की मौज़ूदगी में भुगतान की जिम्मेदारी भी पूरी कर कवियों व शायरों को विदा किया और सुबह 6 बजे घर पहुँचा. घर में शांति थी. रात भर का जगा होने के कारण बिस्तर पर जाते ही सो गया तो फिर शाम 5 बजे ही आँखें खुलीं. माताजी बरामदे में बैठी थीं. उनके पास जाकर बैठ गया. पत्नी चाय ले आई.
इस तरह, उस साल का कविसम्मलेन एवं मुशायरा सफलतापूर्वक संपन्न हो गया लेकिन पत्नी को करवाचौथ के व्रत से सदा सदा के लिए छुटकारा मिल गया.
ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
(उ.प्र.)
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