रचना
माना मैं कलयुग का राम हूं, पर और कितना सहन करूं।
घर-घर रावण जन्म ले रहा, किस-किस का अब दहन करूं।।
कदम-कदम पर पापी रावण, वेष बदलकर घूम रहे।
सीता रूपी बेटी-बहन को,गिद्ध नयन से ढूंढ रहे।।
यज्ञ करूं इनकी मुक्ति को,या फिर कोई हवन करूं।
घर-घर रावण जन्म ले रहा, किस-किस का अब दहन करूं।।
किसी में रावण अहंकार का,किसी में रावण लालच का।
किसी में रावण भेदभाव का,किसी में रावण नफरत का।।
किस रावण की चिता जालाऊं, किस रावण को दफन करूं।
घर-घर रावण जन्म ले रहा, किस-किस का अब दहन करूं।।
हर रोज कहीं रावण कोई, सीता का हरण कर जाता है।
क्षत्-विक्षत् कर शीलभंग,रूह को घायल कर जाता है।।
कैसे रोकूं इस विकृति को,कैसे इसका दामन करूं।
घर-घर रावण जन्म ले रहा, किस-किस का अब दहन करूं।।
धन्य था रावण सतयुग का, जो चरित्रवान विद्वान भी था।
छुआ नहीं पर नारी को, इतना नारी सम्मान भी था।।
जिस्म के भूखे रावण कलयुगी, पर क्या इनका जतन करूं।
घर-घर रावण जन्म ले रहा, किस-किस का अब दहन करूं।।
गीतकार अवनीश राही
अलीगढ
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