*सारा सच प्रतियोगिता के लिए रचना*
**विषय: अतिथि**
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*चौराहे चौराहे पर*
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(छंदमुक्त काव्य रचना)
"अतिथि देवो भव" कहनेवाले लोग यहां,
अब इस नए जहां में कहां मिलते है?
गुज़र गए वो दिन,गुज़र गया वो जमाना,
उस जमाने में अतिथि हर आंगन में हंसते थे।
वक्त के साथ-साथ सबकुछ बदल गया यहां पर,
अब रिश्ते भी रह गए है यहां बोझ बनकर।
अतिथि तो बहुत दूर की बात है इस जमाने में,
अब मां बाप ही बीता रहें है,आखरी घड़ियां वृद्धाश्रम में।
अतिथि तुम कब आओगे अब सुनने को नहीं मिलता,
अतिथि का बोझ यहां अब कोई नहीं है उठाता।
कल की मिट्टी के दीवारों में मन में था प्यार और दुलार,
फिर भी उन्हें ही कहते है आज के लोग थे वो अनपढ़ और गंवार।
उन्नति के इस नए दौर में बदल गए है लोग,
हर किसी के मन में यहां पनप रहा है स्वार्थ और अहंकार।
इन्सानों के दिलों में ही होती है इन्सानियत और प्रेम,
मगर आज हद से ज्यादा बदल गया है ये सारा संसार।
जहां मां बाप ही बने हुए है बोझ इस ज़माने में,
जहां रिश्ते भी एक-दूसरे से अंजान बन गए है।
बदल गई पीढ़ियां खत्म हुई वो प्यार भरी मानवता,
बस,अतिथि अब यहां पर एक नाम बनकर रह गया है।
कल यहां घर आंगन में शोर हुआ करता था,
आज हर घर-घर के दरवाजे भी बंद हुए है।
जैसे आती है चमन में पतझड़ तो सब लगता है विरान,
वैसे ही आज इस ज़माने में, गलियां भी उजड़ी हुई दिखती है।
"अतिथि देवो भव"कहनेवाले लोग यहां,
अब इस नए आधुनिक जमाने में कहां मिलते है?
गुज़र गए वो दिन,गुज़र गया वो जमाना,
इसीलिए आज यहां हर चौराहे चौराहे पर वृद्धाश्रम में मां बाप रोते हुए नज़र आते है।
प्रा.गायकवाड विलास.
मिलिंद महाविद्यालय लातूर.
महाराष्ट्र
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