ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य साप्ताहिक प्रतियोगिता "हमारी वाणी" के अंतर्गत रचना प्रेषित है।
*रावणत्व के ख़िलाफ़*
अधर्म पर धर्म की विजय कहकर
हर साल की तरह इस बार भी
हम सबने
मार डाला नकली रावण
और झाड़ लिए अपने हाथ.
न जाने कब से ढोए जा रहे हैं हम
परंपराओं को
आदतन, मजबूरन या तफरीहन.
साल भर जोर कराता है
अत्याचार, अनाचार
और भ्रष्टाचार का रावण.
हमारे मानवीय मूल्यों को
गाजर मूली की तरह चबाता हुआ.
दरअस्ल
हमारी लापरवाही का
निहित स्वार्थों के चलते
अशिक्षा, बेरोजगारी और
गरीबी का फायदा उठा हुआ
हमारी आस्था और विश्वास के साथ
मुँहजोरी करता हुआ
अट्टहास करता है
हमारे ही भीतर बैठा रावण.
जिसे मारने की हिम्मत चुक चुकी है
हममें भी तुममें भी.
वस्तुतः
हम लड़ना ही नहीं चाहते हैं
बल्कि नाटक करते हैं लड़ने का
क्योंकि यह रावणत्व
पोषक भी तो है
हमारी सुख-सुविधाओं का.
इसलिए
लाख मौखिक निंदा के बावज़ूद
हम संजोए रखना चाहते हैं
उसे अपने भीतर.
जबकि-
मर्यादापुरुषोत्तम राम बने बग़ैर
रावण को मारना मुश्किल ही नहीं,
नामुमकिन है.
इसलिए
आइए संकल्पित हों
कि हम पैदा करेंगे
ऊर्जा अपने भीतर
इस रावणत्व के ख़िलाफ़
जो दुश्मन है
हमारी सांस्कृतिक धरोहर का.
सच तो यह है कि अब लड़ना ही होगा
रावणत्व के ख़िलाफ़.
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ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
शाहजहाँपुर-
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