Friday, 25 April 2025

न्याय/ कानून - अनन्तराम चौबे अनन्त

 


 न्याय/ कानून  - अनन्तराम चौबे अनन्त
https://sarasach.com/?p=502

न्याय, कानून, कोर्ट, फैसला,
वकील बीच में इसके रहते है ।
अन्याय जहां जब भी होता है
न्याय पाने को कोर्ट जाते है ।

कोर्ट कचहरी और थाने में
न्याय मांगने सब जाते हैं ।
न्याय अन्याय के चक्कर में
दोनों पक्ष यहां पर जाते हैं।

न्याय अन्याय के फैसले में
कानून से फैसला होता है ।
वकील कोर्ट में जिरह करते है
गवाह और साक्ष्य रखते हैं ।

सर्वोच्च न्यायालय के जज के 
घर से करोड़ों के नोट जले मिले।
बोरियों ये भरे नोटों को न्याय 
बदलने को किसी से ही मिले ।

अपराधी मामले पुलिस देखती
जांच के वाद रिपोर्ट को लिखती ।
चार्ज सीट जब कोर्ट में जाती
सुनवाई केश की तब है होती ।

कानून तो बस अंधा होता है
साक्ष्य और गवाह मांगता है ।
सच को झूठ और झूठ को सच
वकीलों की जिरह से होता है ।

न्याय पाने के चक्कर में कोर्ट में
दस बीस साल गुजर जाते हैं ।
तारीख पर तारीख कोर्ट से मिलती
समय और पैसा बरवाद होते हैं ।

वकीलों की रोजी रोटी चलती है
हर पेशी में फीस जो मिलती है ।
वकीलों का काम जिरह करना है
मानवता वहां तार तार होती है ।

अपराध और दुष्कर्म के मामले में
महिलाओं की इज्जत लुटती है ।
न्याय को पाने कोर्ट जो जाता
उसकी भी इज्जत लुट जाती है ।

न्याय कानून कोर्ट के फैसले
वकीलों के माध्यम से चलते हैं ।
सारा सच न्याय मिले या न मिले
जीवन तो बर्बाद हो जाते हैं  ।

न्यायालय है न्याय का मंदिर
न्याय पता नहीं कब होता है।
किसको न्याय कब मिलता है
समय का न कुछ पता होता है ।

माध्यम वकील न्याय में होते
जो अपना धंधा करते हैं ।
सारा सच वादी, प्रतिवादी के 
पक्ष में वकील खड़े रहते हैं ।

कौन सच्चा और कौन झूठा है
दोनों पक्ष अपना रखते हैं ।
दोनों जीत का वादा करते
मन मानी फीस जो लेते हैं ।

गारंटी नहीं किसी केश की
हार जीत कब किसकी होगी ।
वकील फीस अपनी लेते हैं
अगली तारीख बढ़ा लेते हैं 

सारा सच फैसले की गारंटी नहीं 
तारीख पर तारीख  ही मिलती है ।
दस बीस साल केश चलते हैं
खर्च की कोई सीमा नहीं होती है ।

   अनन्तराम चौबे अनन्त
    जबलपुर म प्र

राजनीति - डॉ० अशोक

 


 राजनीति - डॉ० अशोक
https://sarasach.com/?cat=21

खुशियां पाने की,
यही जिंदगी है।
सबसे खूबसूरत उपहार है,
इसमें रहती बंदगी है।

खूबसूरत उपहार है,
राजनीति गुणवत्ता का,
भरा-पूरा संसार है।

समर्पण मेहनत जोश से लबरेज रहते हैं लोग यहां,
दुनिया आबाद रहे,
इसी वजह से,
दूसरे लोगों की फ़िक्र रहती है यहां।

सारा सच है तो,
यही जिंदगी बनकर तैयार रहतीं हैं।
उम्मीद बनाएं रखने में,
साथ-साथ दिखने की,
कवायद दिखाई देती है।

राजनीति में दलीय आधार है,
इसकी वजह से ही,
नहीं दिखता सर्वत्र सत्कार है।

यही जिंदगी में खुशियां लेकर आता है,
कुछ हमदर्दी जताते हैं तो कुछ,
बर्बाद कर रहे हुजूम में,
साथ-साथ दिखता है।

राजनीति उत्तम है,
यह बन सकता सर्वोत्तम है।
इसकी खूबियां अनेकों बार,
सामने नज़र आती है।
बड़ी नजदिकियां बढ़ाने में,
इसकी अहमियत दिखाई देती है।

सारा सच के उद्गार में,
तमाम हसरतें पूरी की जा रही है।
साहित्य और संस्कृति को,
मजबूती से यहां आए दिन,
अपनाई जा रही है।

नवीन प्रयास है तो राजनीति,
शिखर पर पहुंचाता है।
उम्मीद बनाएं रखने में,
सबसे पहले खड़ा हो जाता है।

सहर्ष स्वीकार कर,
इसकी अहमियत बढा सकते हैं।
नम्रता और सुचिता से,
इसकी महक फैला सकते हैं।

सारा सच एक साहित्यिक विधा की,
सर्वश्रेष्ठ पालनहार है।
नवीन प्रयास और प्रयोग का,
सबसे खूबसूरत उपहार है।

डॉ० अशोक, पटना,बिहार

राजनीति अर्थात शासन करने के लिए बनाई गई नीति - राज किशोर राय युवी


राजनीति अर्थात शासन करने के लिए बनाई गई नीति - राज किशोर राय युवी

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राजनीति अर्थात शासन करने के लिए बनाई गई नीति। या जनता सेवा के लिए समाज राज्य या फिर किसी भी देश पर शासन करना । जनता के लिए समय –समय पर अवश्यकता अनुसार क़ानून या विभिन्न प्रकार की सरकारी योजनाए  बनाकर आम जनों को राहत प्रदाण करना राजनीति है ।

         पर आज की हलात कुछ और ही है ,राजनीति मतलब चोर ,बदमाश,बाहुबली गन्दे लोगों की जगह ।जहां सिर्फ खुद या  अपनों के लिए ही कार्य किया जाता है । कोई भी योजनाएं क्यों न हो राजनीति करने वाले इन राजनेताओं के परिवारजनो का ही महत्व दिया जाता है । गरीब जनता का हक मारकर खुद खाने वाले ये राजनेताओं ने खुद ही खुद को कलंकित कर दिया है राजनीति को ।अक्सर हम देखते है कि खुद किसी पद पर आसीन ये नेता लोग पैसों की लालच मे अपनी जमीर बेच देते है । सारे उलटे सीधे काम करवाने से भी पीछे नहीं हटते ,बस इनको सिर्फ पैसों और पद से मतलब है और कुछ नहीं । मैं तो यहाँ तक देखा हूँ कि राजनीति के चक्कर मे ये राजनेता लोग चंद पैसों के खातिर बेहद ही गरीबों को भी नहीं छोड़ते ।नीचे से लेकर ऊपर तक सभी बेईमान और रंगदार लोग ही आजकल राजनीति मे दिखेंगे कुछ अपवाद को छोड़ कर ।
कभी सिर्फ समाज सेवा और राष्ट्र सेवा गरीबों के ख्याल रखाने के लिए  राजनीति में पढ़े – लिखे अच्छे लोग आते थे |
ऐसा नहीं है कि राजनीती या राजनेताओं से हमेशा से लोग घृणा करते आए है बल्कि महान क्रांतिकारी सुभाष चन्द्र बोस जी  लोह पुरुष पटेल जी सहित बहुत सारे महान लोगों ने राजनीति में आकर समाज के लिए राष्ट्र के लिए बहुत ही अच्छे कार्य किये । लेकिन समय के साथ–साथ राजनीति करने कि तरीके बदले गए और राजनेता भ्रष्ट होते गए । आज हम युवा वर्ग कदापि नहीं चाहते है कि राजनीति में जाए और यही तो रोना है कि चंद नाम छोड़ दिया जाए तो सारे के सारे राजनेता लोग अपने पथ से भटक गए हैं । और अच्छे राजनेताओं की कमी ने उन्हें और अवसर प्रदान किया है भ्रष्टाचार और मनमानी करने की आज़दी ।पर आम जनता करें तो क्या करें यह एक विकट समस्या है ।

@राज किशोर राय युवी
(मधुबनी. बिहार)🙏🏼

वैदिक सभ्यता संस्कृति में स्त्रियों का स्थान पुरुषों से अधिक - प्रदीप कुमार नायक

 


वैदिक सभ्यता संस्कृति में स्त्रियों का स्थान पुरुषों से अधिक 
                 प्रदीप कुमार नायक 
https://sarasach.com/?p=494

              स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार 
         आजकल ऐसा रिवाज़ चल पड़ा है, कि स्त्रियां कहती हैं, "हम भी पुरुषों के बराबर हैं। हम भी सब क्षेत्रों में काम करेंगी, और कर भी रही हैं।" यह विचार वैदिक नहीं है। भारतीय सभ्यता संस्कृति का नहीं है। यह विदेशी सभ्यता की देन है।
         वैदिक सभ्यता संस्कृति में तो स्त्रियों का स्थान, पुरुषों से अधिक ऊंचा है। देखिए शास्त्रों में क्या लिखा है, "मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद।" अर्थात जिसे तीन उत्तम शिक्षक मिल जाते हैं, धार्मिक विद्वान माता पिता और आचार्य, उस व्यक्ति का कल्याण हो जाता है। देखें, इस वचन में सबसे पहले माता का स्थान है। ऐसा ही और भी बहुत जगह पर लिखा है। "माता, बच्चों के पालन और रक्षा के लिए जितने कष्ट उठाती है, इतने पिता या संसार में कोई भी नहीं उठाता। आदि आदि कारणों से वैदिक शास्त्रों में स्त्रियों का स्थान, पुरुषों से अधिक ऊंचा बताया गया है।" "फिर भी आज की स्त्रियां अपनी अज्ञानता के कारण अपने आप को पुरुषों के बराबर कहना चाहती हैं, अर्थात वे अपना स्थान और सम्मान स्वयं ही खो रही हैं।"
            "विदेशों में स्त्री और पुरुष दोनों नौकरी व्यापार व्यवसाय करते हैं। उन्हीं की नकल भारतीय लोगों ने आरंभ कर दी। जबकि उनकी इस व्यवस्था के दुष्परिणाम नहीं देखे। अंधाधुंध उनकी नकल की। इसलिए अनेक क्षेत्रों में लोगों ने हानियां भी उठाई।"
           कुछ लोगों की सोच यह भी है, कि "हमारी बेटी कल बड़ी होगी, शादी करेगी, ससुराल जाएगी। यदि वहां लड़ाई झगड़ा हो गया, और तलाक हो गया, तो यह अपना जीवन कैसे जीएगी? इसलिए इसको पहले से ही इतना समर्थ बना दें, कि कल यदि तलाक की नौबत आ गई, तो यह अपने पैसे खुद कमा ले, और अपना जीवन गुज़ारा खुद ही कर ले।" अर्थात पहले से ही माता-पिता के मन में यह बात है कि "हमारी बेटी ससुराल जाएगी, झगड़ा करेगी, तलाक करेगी, और फिर जैसे तैसे अपना जीवन जीएगी।" इस प्रकार का चिंतन भी बहुत गलत है। बेटी को यह नहीं सिखाते, कि "ससुराल में सहनशक्ति रखनी है, वही तुम्हारा घर है, तुम्हें वहीं रहना है, वहीं जीवन बिताना है। तलाक करके वापस घर नहीं आना है।" "इसलिए आजकल बेटियों को आर्किटेक्ट कंप्यूटर इंजिनियर सिविल इंजीनियर मैकेनिकल इंजीनियर सी ए, एम बी ए आदि कोर्स पढ़ाते हैं।" यह सोच उचित नहीं है। "क्योंकि जिन क्षेत्रों में स्त्रियां ऐसे कार्य कर रही हैं, वहां पुरुष लोग बेरोजगार हो गए। वे खाली सड़कों पर भटक रहे हैं, उन्हें काम नहीं मिल रहा। क्या यह देश की हानि नहीं हुई?"
        कुछ बेटियों से मैंने पूछा, कि "आप नौकरी व्यापार क्यों करती हैं?" उन्होंने कहा, कि "हमें अपने खर्चों के लिए पुरुषों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। आर्थिक पराधीनता है, इसलिए हम अपने पैसे खुद कमाना चाहती हैं, ताकि आर्थिक स्वतंत्रता बनी रहे।" मैंने उनसे पूछा, "आप पुरुषों के आगे महीने में कितनी बार हाथ फैलाती हैं?" वे बोलीं, "शनिवार रविवार को हमें शॉपिंग करनी होती है, तो महीने में चार बार हमको पुरुषों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है।" मैंने कहा, कि "पुरुष तो आपके सामने एक दिन में 10 बार हाथ फैलाते हैं। मुझे नाश्ता दो, मुझे खाना दो, मेरे कपड़े दो, मेरे जूते चप्पल दो, मेरे मोजे नहीं मिल रहे, इत्यादि।" इस प्रकार से पुरुष आपके सामने दिन में 10 बार हाथ फैलाते हैं। उन्होंने तो कभी नहीं कहा, कि "हम खाना खाने के लिए स्त्रियों के आधीन हैं, इसलिए हम अपना खाना खुद बनाएंगे।" "वे महीने में 300 बार स्त्रियों के आगे हाथ फैलाते हैं, उनको कोई शर्म नहीं आती। और आपको महीने में 4 बार हाथ फैलाने में भी शर्म आती है।" "जो पति आपका सब प्रकार से रक्षक पालक पोषक हितकारक और जीवन के सब सुख देने वाला है, उससे धन मांगना आपका अधिकार है। "अपना अधिकार मांगने में शर्म कैसी?" क्योंकि आप भी तो उसके घर की सुरक्षा व्यवस्था आदि के लिए सारा दिन घर में काम करती हैं। वह आपका शत्रु नहीं है, जो कि आपको उससे धन मांगने में शर्म आवे। " ऐसा सोचना चाहिए। "आर्थिक स्वतंत्रता का एक लाभ देखकर 10 प्रकार की हानियां भी तो आपने उठाई!" इसलिए यह कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं है।"
         ज़रा सोचिए, "घर में बड़ों की सेवा करना, बच्चों को जन्म देना, बच्चों का प्रेमपूर्वक पालन पोषण करना, उन्हें सभ्यता सिखाना, उन्हें अच्छे संस्कार देना, घर में सबको बढ़िया भोजन खिलाकर सबके स्वास्थ्य का ध्यान रखना, घर में आए अतिथि की सेवा करना, नौकर चाकर से काम कराना, इत्यादि, ये सब काम वेदों में ईश्वर ने स्त्रियों के लिए ही तो बताए हैं।" 
          और "धन कमाना, दूर-दूर जाना, यात्राएं करना, धक्के खाना, नौकरी व्यापार करना, युद्ध करना, आदि, ये सब भारी भारी काम ईश्वर ने वेदों में पुरुषों के लिए बताए हैं।" "अब स्त्रियों ने पुरुषों वाले काम नौकरी व्यापार आदि आरंभ कर दिए, इससे समाज में अनेक प्रकार का असंतुलन उत्पन्न हो गया, और अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं।"
          "जो व्यापार नौकरी पुरुष करते थे, अब वे स्त्रियां करने लगी। इससे जितनी स्त्रियां ये पुरुषों वाले काम कर रही हैं, उतने पुरुष बेरोजगार हो गए।" "दूसरी ओर स्त्रियों ने घर से बाहर काम करना शुरु किया, तो उनके घर के काम छूट गए। परिवार बिखर गया। घर का आपसी प्रेम और संगठन टूटने लगा। तलाक की घटनाएं बढ़ने लगी। चरित्रहीनता, और स्त्रियों का अनेक प्रकार से शोषण भी बहुत बढ़ गया। बाहर का और घर का काम अधिक हो जाने से नौकरीपेशा स्त्रियों का स्वास्थ्य भी बिगड़ गया। घर के लोगों को और बच्चों को ठीक समय पर अच्छा पौष्टिक स्वादिष्ट स्वास्थ्यवर्धक भोजन नहीं मिलता। बच्चों को माता का प्रेम नहीं मिलता। उनका स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है। नौकर बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। बच्चों को तंग करते हैं। उन्हें उत्तम संस्कार नौकर नहीं दे सकते। माताओं ने संस्कार देना बंद कर दिया। नौकरी व्यापार के कारण उनके पास बच्चों की देखभाल करने और उनको एक अच्छा सभ्य नागरिक बनाने का समय ही नहीं है। वे तो नौकरी पर चली गई। परिणाम यह हुआ, कि जब बच्चे बड़े हो गए, तब उन्होंने माता पिता की सेवा नहीं की। क्योंकि बच्चों को ऐसे संस्कार ही नहीं दिए गए। इस में अधिक दोष माता पिता का है। बच्चे भी जवान हो कर स्वार्थी बनकर विदेशों में जाकर अपने पैसे कमाकर खा पी कर अपनी मौज करते हैं। और अपने बूढ़े माता पिता को वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं। इस प्रकार से चारों ओर दुष्परिणाम है।"
        "यदि आप इन समस्याओं से छूटना चाहते हों, तो वेदों के अनुसार स्त्री और पुरुष अपना अपना कार्य करें। विदेशी लोगों की अंधाधुंध नकल न करें।" वेदों के अनुसार ऋषियों ने बताया है, कि "स्त्रियां घर का काम करें, और पुरुष बाहर का। इसमें ही सबकी सुरक्षा उन्नति और सुख है।"
         "यदि घर में धन कमाने वाला पुरुष न रहे, उसकी मृत्यु हो जाए, या अत्यंत रोगी हो जाए, आदि आदि ऐसी आपात्कालीन परिस्थितियों में भी परिवार के अन्य पुरुष लोग, घर की स्त्रियों का भरण पोषण करें, ऐसा वेदो में विधान है।" "और बिल्कुल अंतिम अवस्था में जब कोई भी धन कमाने वाला पुरुष घर में न हो, केवल तब ही स्त्रियां धन कमा सकती हैं, सामान्य रूप से नहीं।" "तब भी स्त्रियां पहले अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखें, उसके बाद ही धन कमाएं। आजकल कंप्यूटर से घर बैठे भी बहुत सा धन कमाया जा सकता है। उसमें सुरक्षा भी रहती है, और आय भी हो जाती है।"
         एक और स्पष्टीकरण -- "मैं स्त्रियों के पढ़ने-लिखने का विरोधी नहीं हूं। स्त्रियों को खूब पढ़ना चाहिए। क्योंकि इससे बुद्धि का विकास होता है। और घर का प्रबंध व्यवस्था ठीक रखने के लिए बहुत बुद्धि चाहिए। इसलिए स्त्रियों की पढ़ाई लिखाई का उद्देश्य घर की व्यवस्था ठीक चलाना, बुद्धिमत्ता से सब कार्य करना, स्वयं सुखी होना, अपनी सुरक्षा रखना, परिवार को सुख देना इत्यादि होना चाहिए। स्त्रियों की पढ़ाई लिखाई का उद्देश्य धन कमाना मुख्य रूप से नहीं होना चाहिए। तभी समाज का संतुलन ठीक बनेगा।"
            जो महिलाएं आज नौकरी व्यापार आदि करती हैं, वे विचार करें, "क्या उनकी दादी नानी नौकरी करती थी? नहीं। क्या उन्होंने अच्छी प्रकार से घर नहीं चलाया? बहुत अच्छा चलाया। वे आप से कम पढ़ी लिखी थी, फिर भी आप से अधिक अच्छा घर चलाया। इसलिए अपनी पुरानी परंपरा को ही सुरक्षित रखें। वही वेदानुकूल और सुखदायक है। विदेशियों की नकल न करें, और व्यर्थ के कुतर्क लगाकर अपना और समाज का जीवन नष्ट न करें।"
         "समाज में कुछ क्षेत्रों में स्त्रियों को कार्य भी करना चाहिए। वह भी धन कमाने के उद्देश्य से नहीं। बल्कि सब स्त्रियों की सुरक्षा के लिए, अपनी सुरक्षा के लिए, देश के चरित्र की रक्षा के लिए, दुर्घटनाओं को रोकने के लिए, इन उद्देश्यों से स्त्रियों को कुछ क्षेत्रों में काम करना चाहिए। जैसे कि अध्यापन में, चिकित्सा क्षेत्र में, पुलिस में, वकालत में, बैंकों आदि में। राजनीति में भी कुछ स्त्रियों को जाना चाहिए, ताकि वे स्त्रियों की समस्याओं को समझें और इस प्रकार के कानून बना सकें, जो देश की स्त्रियों की सुरक्षा के लिए हों।" "परन्तु सब क्षेत्रों में स्त्रियों को नहीं जाना चाहिए। जैसे रात को होटल में शराब पिलाना, इंजीनियर बनना, आर्किटेक्ट बनना, सेना में युद्ध करने के लिए जाना इत्यादि। वहां उनकी अपनी सुरक्षा को खतरा है।" "जिन कार्यों को पुरुष कर सकते हैं, वह उनका व्यवसाय है, ऐसे कार्यों को स्त्रियां क्यों करें?"
           व्यापारिक कंपनियों में सेक्रेटरी आदि बनकर, जो  स्त्रियां काम करती हैं, वहां उन स्त्रियों का अनेक प्रकार से शोषण ही अधिक होता है। और जो स्त्रियां गुलछर्रे उड़ाने के लिए नौकरी व्यापार करती हैं, उन्हें भी अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखकर संयम रखना चाहिए। इस हेतु से भी नौकरी व्यापार आदि करना अच्छा नहीं है। क्योंकि वहां भी उनकी सुरक्षा को सदा खतरा बना रहता है।" "यदि उन्हें कुछ धन कमाने की इच्छा या शौक हो भी, तो अपने पति के व्यवसाय में एक दो घण्टे सहयोग देकर वे धन कमा सकती हैं। इससे उन का शौक भी पूरा हो जाएगा और उनकी सुरक्षा भी बनी रहेगी।"
           जब स्त्रियां नौकरी व्यापार आदि करने के लिए घर से बाहर निकलती हैं, तब समाज के दुष्ट लोग उन पर अनेक प्रकार के अन्याय अत्याचार शोषण आदि अपराध भी करते हैं। "स्त्रियों के प्रति अत्याचार अन्याय शोषण आदि करने वाले अपराधियों के लिए शासन की ओर से दंड व्यवस्था भी अत्यन्त कठोर होनी चाहिए, तभी अपराधों को रोका जा सकेगा, अन्यथा नहीं।"
         नौकरी व्यापार करने वाली महिलाएं यह समझती हैं, कि "हम अब स्वात्म निर्भर हो गई। जबकि वे अनपढ़ नौकर चाकरों पर निर्भर करती हैं। क्योंकि उनके बिना उनके घर का काम नहीं चल सकता। जो स्त्रियां घर से बाहर नौकरी नहीं करती, घर का काम संभालती हैं, उनको धन आदि के लिए अपने पढ़े-लिखे बुद्धिमान पति पर निर्भर करना पड़ता है। अब आप दोनों की तुलना कर लीजिए, कि कौन सा पक्ष अधिक अच्छा है। "अनपढ़ नौकरों पर निर्भर करना," या "पढ़े-लिखे बुद्धिमान पति पर"!
             इसलिए गंभीरता से चिंतन करें। वैदिक सभ्यता संस्कृति के अनुसार खूब सोच-समझकर निर्णय लेवें। "स्त्रियां सबसे पहले अपनी रक्षा करें, फिर परिवार समाज राष्ट्र की सुरक्षा के लिए भी प्रयास करें। ऐसा करने से सब को सुख मिलेगा, सब की उन्नति होगी, और चरित्र से संबंधित अनेक दुर्घटनाएं भी रुकेंगी।"

न्याय - कंचनमाला अमर

 


न्याय - कंचनमाला अमर 
https://sarasach.com/?p=489

न्याय चेतना तीन तरह की होती है।एक जो हम दूसरों के लिए करते हैं।दूसरा जो हम अपनों के लिए करते हैं ।तीसरा जो हम स्वयं के लिए करते हैं।एक ही अपराध के लिए हम अलग अलग स्थानों और अलग अलग पात्रों के लिए अलग अलग न्याय देते हैं।मानव मनोविज्ञान जितना जटिल कुछ भी नहीं।मानव मनोविज्ञान को समझे तो हमें मालूम चलता है कि मानव से बढ़कर स्वार्थी कोई जीव इस धरा पर नहीं। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि इस संसार में  मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपने सद्गुणों या अवगुणों को विकसित करके क्रमशः महात्मा या दुरात्मा बन सकते हैं।देव भी बन सकता है और राक्षस भी।यह क्षमता परमात्मा ने इनमें ही दी है ,किसी अन्य जीव में नहीं। अगर मनुष्य मानवता धर्म को अपनाएं।परमात्मा से जुड़ें ताकि तर्कसंगत न्याय करने की क्षमता  में विकसित हो तो औरों के साथ,अपनों के साथ और स्वयं के साथ बिना किसी भेदभाव के समुचित न्याय कर सकता है।जिससे न्याय की भी,न्यायप्रणाली की भी और इंसानियत की भी साख इस दुनिया में बनी रहेगी।साथ ही मानव समाज सुंदर,शांत और विकसित बनेगा क्योंकि अन्याय ही समाज में क्लेश,ईर्ष्या,दुर्भावना जैसी कलुषित भावना को जन्म देती है।

धर्म को अपनाएं,न्याय व्यवस्था को समझे और परिस्थितियों के अनुसार समुचित प्रतिपालन करें।

Tuesday, 22 April 2025

वादे - संजय वर्मा"दृष्टि"

 


वादे - संजय वर्मा"दृष्टि"

https://sarasach.com/?cat=21

काश तुम जिंदा होती
सपने अधूरे वादे अधूरे
सब बात अधूरी
साथ अधूरा
सपने परेशान करते
यादों को बार बार दोहराते
नींद से उठ बैठता
गला सूखने पर
मांगता था पानी
अब खुद उठ कर पीता हूं पानी
काश तुम जीवित होती
बीमारी में मुझे छोड़कर न जाती
तुम बिन सब अधूरे
वादे अधूरे
अगले जन्म में होगी साथ
काश यही तो है
विश्वास
वादे होंगे पूरे।

संजय वर्मा"दृष्टि"

बादल और चांदनी - ऋचा गिरि


बादल और चांदनी - ऋचा गिरि
https://sarasach.com/?p=480

कल बादल को चलते देखा 
आँगन से शाम ढलते देखा 
चांदनी से आंख मिचौली खेल 
फिर जल्दी जल्दी चलते देखा 

पल आँखों से ओझल हो 
दूर जा भेष बदलते देखा 
तारे गवाही दे रहे थे की 
आप आप मे खलते देखा 

चाँदनी से विरह होने का 
शायद उसको गम था  
हां, फिर वह जा कर रोया
तोड़ा जो वो वचन था

विकल चांदनी सोच रही 
क्या कोई प्रणय,कम था 
कहा गया वो कैसा होगा 
या और कोई हमदम था

 चांदनी निकल गई और,पूछा
 क्या मेघदूत को फिरते देखा
 सहस्त्र फूट ऊंचाई पर,जा 
 गरज गरज कर घिरते देखा

 समझ गई चांदनी मेघ की लीला
 जब इस विरह को सहते देखा 
 छोटी वेदना बड़ा था गौरव 
 जब कर्म पथ पर चलते देखा

-ऋचा गिरि
दिल्ली